आर्य समाज स्वामी दयानन्द सरस्वती --
आर्य समाज की स्थापना दयानन्द सरस्वती ने 1875 में बम्बई में की थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 में काठियावाड़ गुजरात के एक ब्रह्ममण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। बचपन में साथ एक घटना घटित हुई। इन्होने मन्दिर में शिवरात्रि के पर्व पर शिवलिंग पर एक चूहे को घूमते हुए देखा इनके मन में विचार आया कि मूर्तिपूजा एक पाखण्ड है। 22 वर्ष की आयु में इन्होंने गृह त्याग कर दिया। मथुरा में इन्होंने स्वामी विरजानन्द से वैदिक धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी जी ने आगरा से अपने उद्देश्यों का प्रचार - प्रसार किया। इन्होंने मूर्ति पूजा , बहुदेववाद , अवतारवाद , पशुबलि प्रथा यंत्र - मंत्र - तंत्र और कर्मकाण्ड विरोध किया। इन्होंने सन्देश दिया कि वेदों आधार पर भारतीय समाज का पुनः निर्माण किया जा सकता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुनः वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाशन नामक पुस्तक की रचना की 30 अक्टूबर 1883 को इनका निधन हो गया था।
आर्य समाज के सिद्धान्त --
1 वेद ही सत्य और ज्ञान का श्रोत है। प्रत्येक आर्य को इनका अध्ययन करना चाहिए।
2 सत्य और असत्य पर विचार करके धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिए।
3 ईश्वर एक है , जो निराकार है। मूर्तिपूजा निरर्थक है।
4 प्रत्येक आर्य को विद्या की वृद्धि का प्रयत्न करना चाहिए।
5 प्रत्येक आर्य का यह परम् धर्म है कि वह सदैव सत्य को ग्रहण करे और असत्य त्याग दे।
6 सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिये।
7 सामाजिक आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में उन्नति का प्रयास करते हुए संसार में जनकल्याण के लिए ततपर रहना चाहिए।
8 प्रत्येक व्यक्ति को निजी रूप से सन्तुष्ट रहने की बजाय सम्पूर्ण समाज की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
9 सत्य और ज्ञान का आदि मूल परमेश्वर है।
10 प्रत्येक व्यक्ति को निजी स्वतंन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए , किन्तु उसे दूसरों की भलाई के मार्ग में बाधक नहीं बनना चाहिए।
आर्य समाज के कार्य एवं उपलब्धियाँ --
आर्य समाज ने धर्म - सुधार तथा सामाजिक सुधार के साथ - साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीं।
सामाजिक सुधार -- आर्य समाज ने बल विवाह , बहु विवाह , निषेध जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। आर्य समाज ने जातीय भेदभाव पर भी प्रहार किया। जातिगत भेदभाव समाप्त करने के लिए जाति भेद निवारक संघ की स्थापना की गई।
अन्तर्जातीय विवाहों का भी इन्होंने समर्थन किया। इन्होंने विवाह लिए लड़की आयु 16 वर्ष व लड़के की आयु 25 वर्ष निर्धारित की। ऐसे विवाहों को क़ानूनी रूप प्रदान करने के लिए आर्यसमाजी पद्धति शुरू की गई। वेश्यावृत्ति को रोकने भी आर्य समाज ने आन्दोलन चलाया।
धार्मिक सुधार -- आर्य समाज ने वेदों का महत्व जनता के सामने रखा और यह सिद्ध किया की सभी ज्ञान और विज्ञानं का श्रोत वेद ही हैं। आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन के तहत उन लोगों को हिन्दू धर्म में वापस आने का मौका मिला , जिन्होंने अन्य किसी धर्म को स्वीकार कर लिया था। 1908 में आर्य समाज ने दलित जाति के उद्धार के लिए भी आन्दोलन चलाए। मूर्ति पूजा , कर्मकाण्ड का विरोध करते हुए हुए आर्य समाज ने हिन्दुओं को जटिल संस्कारों से मुक्ति दिलाई और उसके स्थान पर सरल संस्कार विधि अपनाने की सलाह दी।
शैक्षिक सुधार -- आर्य समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। शिक्षा के पचार - प्रसार के लिए देशभर में डी ए वी दयानन्द एंग्लो वैदिक शिक्षण संस्थानों की स्थापना की गई। प्राच्य शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आर्य समाज ने मुगल शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। इसी कड़ी में 1902 में हरिद्वार में गुरुकुल। काँगड़ी विश्वविद्यालय को स्थापित किया गया।
आर्य समाज की स्थापना दयानन्द सरस्वती ने 1875 में बम्बई में की थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 में काठियावाड़ गुजरात के एक ब्रह्ममण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। बचपन में साथ एक घटना घटित हुई। इन्होने मन्दिर में शिवरात्रि के पर्व पर शिवलिंग पर एक चूहे को घूमते हुए देखा इनके मन में विचार आया कि मूर्तिपूजा एक पाखण्ड है। 22 वर्ष की आयु में इन्होंने गृह त्याग कर दिया। मथुरा में इन्होंने स्वामी विरजानन्द से वैदिक धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी जी ने आगरा से अपने उद्देश्यों का प्रचार - प्रसार किया। इन्होंने मूर्ति पूजा , बहुदेववाद , अवतारवाद , पशुबलि प्रथा यंत्र - मंत्र - तंत्र और कर्मकाण्ड विरोध किया। इन्होंने सन्देश दिया कि वेदों आधार पर भारतीय समाज का पुनः निर्माण किया जा सकता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुनः वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाशन नामक पुस्तक की रचना की 30 अक्टूबर 1883 को इनका निधन हो गया था।
आर्य समाज के सिद्धान्त --
1 वेद ही सत्य और ज्ञान का श्रोत है। प्रत्येक आर्य को इनका अध्ययन करना चाहिए।
2 सत्य और असत्य पर विचार करके धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिए।
3 ईश्वर एक है , जो निराकार है। मूर्तिपूजा निरर्थक है।
4 प्रत्येक आर्य को विद्या की वृद्धि का प्रयत्न करना चाहिए।
5 प्रत्येक आर्य का यह परम् धर्म है कि वह सदैव सत्य को ग्रहण करे और असत्य त्याग दे।
6 सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिये।
7 सामाजिक आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में उन्नति का प्रयास करते हुए संसार में जनकल्याण के लिए ततपर रहना चाहिए।
8 प्रत्येक व्यक्ति को निजी रूप से सन्तुष्ट रहने की बजाय सम्पूर्ण समाज की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
9 सत्य और ज्ञान का आदि मूल परमेश्वर है।
10 प्रत्येक व्यक्ति को निजी स्वतंन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए , किन्तु उसे दूसरों की भलाई के मार्ग में बाधक नहीं बनना चाहिए।
आर्य समाज के कार्य एवं उपलब्धियाँ --
आर्य समाज ने धर्म - सुधार तथा सामाजिक सुधार के साथ - साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीं।
सामाजिक सुधार -- आर्य समाज ने बल विवाह , बहु विवाह , निषेध जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। आर्य समाज ने जातीय भेदभाव पर भी प्रहार किया। जातिगत भेदभाव समाप्त करने के लिए जाति भेद निवारक संघ की स्थापना की गई।
अन्तर्जातीय विवाहों का भी इन्होंने समर्थन किया। इन्होंने विवाह लिए लड़की आयु 16 वर्ष व लड़के की आयु 25 वर्ष निर्धारित की। ऐसे विवाहों को क़ानूनी रूप प्रदान करने के लिए आर्यसमाजी पद्धति शुरू की गई। वेश्यावृत्ति को रोकने भी आर्य समाज ने आन्दोलन चलाया।
धार्मिक सुधार -- आर्य समाज ने वेदों का महत्व जनता के सामने रखा और यह सिद्ध किया की सभी ज्ञान और विज्ञानं का श्रोत वेद ही हैं। आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन के तहत उन लोगों को हिन्दू धर्म में वापस आने का मौका मिला , जिन्होंने अन्य किसी धर्म को स्वीकार कर लिया था। 1908 में आर्य समाज ने दलित जाति के उद्धार के लिए भी आन्दोलन चलाए। मूर्ति पूजा , कर्मकाण्ड का विरोध करते हुए हुए आर्य समाज ने हिन्दुओं को जटिल संस्कारों से मुक्ति दिलाई और उसके स्थान पर सरल संस्कार विधि अपनाने की सलाह दी।
शैक्षिक सुधार -- आर्य समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। शिक्षा के पचार - प्रसार के लिए देशभर में डी ए वी दयानन्द एंग्लो वैदिक शिक्षण संस्थानों की स्थापना की गई। प्राच्य शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आर्य समाज ने मुगल शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। इसी कड़ी में 1902 में हरिद्वार में गुरुकुल। काँगड़ी विश्वविद्यालय को स्थापित किया गया।
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