खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन 1919 से 1922 --

यद्यपि 1917 में गाँधी जी ने भारतीय राजनिती में प्रवेश कर लिया था , लेकिन भारतीय राष्ट्रिय आन्दोलन  नेतृत्व उन्होंने लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद 1920 में सम्भाला था।

खिलाफत आन्दोलन --

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और तुर्की के मध्य हुई सेवर्स की सन्धि से तुर्की के सुल्तान के सभी अधिकार छिन गए थे। इससे तुर्की राज्य छिन्न - भिन्न हो गया। संसार के सभी मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा धर्मगुरु मानते थे। मुसलमानों ने खलीफा के पक्ष में आन्दोलन चलाया , जिसे खिलाफत आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। खिलाफत शब्द की उतपत्ति खलीफा शब्द से ही हुई है , जिसका अर्थ होता है , खलीफा से संबन्धित। विभिन्न परिस्थितियों के कारण यह आन्दोलन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का भाग बन गया था।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भारतीय मुसलमानों से युद्ध में सहयोग की अपील की थी और बदले में तुर्की के साथ सहानुभूति का आश्वासन दिया था। विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर ब्रिटिश सरकार ने तुर्की के विघटन की भूमिका तैयार कर दी। इससे भारतीय मुसलमानों को आघात पहुँचा और वे अंग्रेजों के विरोधी हो गए।

तुर्की के मामले को लेकर भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधिमण्डल वायसराय से मिलने पहुँचा , लेकिन वायसराय ने उनकी माँगों पर ध्यान नहीं दिया। अतः उपेक्षा से आहत मुस्लिम नेताओं ने खिलाफत आन्दोलन की शुरुआत की।

गाँधी जी खिलाफत आन्दोलन को सहयोग -- गाँधी जी ने खिलाफत आन्दोलन के मामले में मुसलमानों का पक्ष लिया और उन्हें सहयोग देने का वादा किया। इससे भारतीय जनमानस बड़ी संख्या में खिलाफत आन्दोलन से जुड़ गया। 23 नवम्वर 1919 को दिल्ली अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का अधिवेशन हुआ और गाँधी जी को इसका अध्यक्ष बनाया गया उनके सुझाव पर असहयोग एवं स्वदेशी की नीति अपनाई गई।

20 जून 1920 को इलाहाबाद में हिन्दू - मुस्लिम की संयुक्त बैठक में असहयोग के अस्त्र को अपनाए जाने का निर्णय लिया गया। इस बैठक में अल्लाह - हू - अकबर एवं वन्दे मातरम के नारे साथ - साथ लगाए गए। 1 अगस्त 1920 को खिलाफत दिवस के रूप में मनाया गया। इस आन्दोलन में हिन्दुओं एवं मुस्लिमों ने एकता का परिचय दिया।













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