प्रथम विश्व युद्ध की घटनाएँ -- प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई 1914 से प्रारम्भ होकर 11 नबंबर 1918 तक चला। इस महायुद्ध में यूरोप तथा विश्व के अन्य देशो ने भाग लिया। इस युद्ध में पहली बार बड़े पैमाने पर अस्त्र - शस्त्रों का प्रयोग किया गया , जिसके कारण मानव जाति का भयंकर विनाश हुआ। युद्ध में एक ओर जर्मनी , आस्ट्रिया , हंगरी तथा दूसरी ओर रूस , फ्रांस , इग्लेण्ड और सर्विया थे। 1914 की घटनाएँ -- प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत -- 28 जुलाई 1914 को आँस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी। 20 अगस्त को जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण किया , जिसमे जर्मनी की जीत हुई। जर्मनी का फ्रांस पर आक्रमण फ्रांसीसियों ने मार्न की लड़ाई में जर्मनी को हराकर उसे पीछे हटने पर मजबूत कर दिया। रूस का प्रशा पर आक्रमण टेननबर्ग की लड़ाई में रूस की हार हुई। ऑस्ट्रिया का पलैण्ड प्रदेशों पर आक्रमण ऑस्ट्रिया ने रूस के अधीन पोलेण्ड प्रदेशों पर आक्रमण किया , किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। मित्र राष्ट्रों रूस , फ्रांस , इग्लेण्ड , सर्बिया ने जर्मनी के ...
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Showing posts from August, 2019
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प्रथम विश्व युद्ध के कारण और परिणाम -- प्रथम विश्व युद्ध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -- विश्व के इतिहास में प्रथम विश्व युद्ध एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यह 28 जुलाई 1914से आरम्भ होकर 11 नबंबर 1918 तक चला। यह अत्यन्त भीषण युद्ध था , जो मानवता के इतिहास में अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ। यह युद्ध साम्राजयवादी शक्तियों के मध्य औपनिवेशिक बँटवारे को लेकर शुरू हुआ था। यह युद्ध विसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में विकसित सबसे शक्तिशाली एवं संघटित राष्ट्रों के मध्य लड़ा गया था। इस युद्ध ने एशिया और अफ्रीका में राज्यवादी आन्दोलन को तेज कर दिया था। इस युद्ध के परिणाम जहाँ मानवता - विरोधी थे , वहीं मानव कल्याण का मार्ग भी इस युद्ध ने प्रशस्त किया सदियों की वैज्ञानिक प्रगति का नकारात्मक पक्ष इस युद्ध में अधिक स्पष्ट हुआ। युद्ध के पश्चात पुनर्निर्माण के माध्यम से पुनः वैज्ञानिक प्रगति का मार्ग खुला। प्रथम विश्व युद्ध के कारण -- उग्र राष्ट्रीयता की भावना का विकास -- राष्ट्रवाद के उदय के कारण यूरोप में उग्र राष्ट्रीयता की भावनाएँ प्रवल हो चुकी थी , जिससे अनेक राष्ट्रों के मध्य उतपन्न...
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राज्यसभा की शक्तियाँ अथवा कार्य -- विधायी शक्तियाँ -- साधारण विधेयक किसी भी सदन में आरम्भ किए जा सकते है। दोनों सदनों से पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। दोनों सदनों में गतिरोध उतपन्न होने पर राष्ट्रपति संयुक्त बैठक बुला सकते है , लेकिन व्यवहार में लोकसभा की सदस्य संख्या अधिक होने के कारण वह विधेयक पारित करा लेती है। राज्यसभा ऐसे विधेयकों को कानून बनाने से नहीं रोक सकती , किन्तु उन्हें ज्यादा - से - ज्यादा 6 माह तक रोक सकती है। वित्तीय शक्तियाँ -- धन विधेयक पर राज्यसभा की शक्ति केवल विलंबकारी व् नाममात्र की है। धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता है। लोकसभा से पारित होने के बाद धन विधेयक राज्यसभा में पेश किया जाता है। राज्यसभा 14 दिनों के अन्दर अपने विचार तथा सहमति अथवा असहमति संबन्धी संस्तुति के साथ इसे लोकसभा में भेजती है। राज्यसभा इसे केवल 14 दिन तक रोक सकती है। इसके उपरान्त इसे राज्यसभा के असहमत होने पर भी पारित समझा जाता है। प्रशासकीय शक्तियाँ -- राज्यसभा की प्रशासकीय शक्तियाँ भी नाममात्र की है , हालाँकि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदाय...
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लोकसभा की शक्तियाँ अथवा कार्य -- विधायी शक्तियाँ -- साधारणतया किसी भी विधेयक को धन विधेयक को छोड़कर संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है , लगभग सभी महत्वपूर्ण विधेयक पहले लोकसभा में प्रस्तुत किए जाते है। लोकसभा की अनुमति क बिना कोई भी कानून पास नहीं हो सकता है। गतिरोध उतपन्न होने पर राष्ट्रपति द्वारा संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। राज्यसभा से अधिक सदस्य संख्या होने के कारण लोकसभा संयुक्त बैठक में विधेयक को पास करने में विजयी रहती है। लोकसभा की शक्तियाँ राज्यसभा से अधिक प्रभावी होती है। वित्तीय शक्तियाँ -- धन / वित्त पर वास्तविक नियंत्रण लोकसभा का होता है। बजट के संबंध में तथा धन / वित्त विधेयक के संबन्ध में लगभग समस्त शक्तियाँ लोकसभा को ही प्रदान की गई है। बजट एवं धन विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही प्रस्तुत किए जाते है। लोकसभा में पारित होने के बाद ही धन विधेयक व् बजट को राज्यसभा में भेजा जाता है। राज्यसभा को 14 दिन के अन्दर ऐसे विधेयकों को अपनी सिफारिश/ सुझाव सहित वापस करना पड़ता है। यदि राज्यसभा इनको 14 दिन के अन्दर वापस न करे तो लोकसभा विधेयकों ...
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विनिमय के लाभ या महत्व -- श्रम का विशिष्टीकरण -- किसी विशिष्ट वस्तु का विनिमय उस वस्तु के वृहत उत्पादन को बढ़ावा देता है। इससे उस वस्तु के उत्पादन में लगे हुए श्रमिक उसके उत्पादन में विशेषता प्राप्त कर लेते है। इस तरह विनिमय से श्रम का विशिष्टीकरण हो जाता है। कौशल विकास -- जब श्रमिकों द्वारा एक ही कार्य बार - बार किया जाता है , तो वह इस कार्य में निपुण हो जाते है। अतः श्रम विभाजन के अन्तर्गत श्रमिकों कुशलता में वृद्धि होती है। संयुक्त लाभ -- विनिमय प्रक्रिया द्वारा व्यक्तियों या राष्ट्रों को कम महत्व वाली वस्तुओं के बदले अधिक महत्व वाली वस्तुएँ प्राप्त होती है। इस प्रकार विनिमय के दोनों पक्षों को लाभ होता है। विस्तृत बाजार पहुँच -- विनिमय ने बाजारों के क्षेत्र को अधिक बढ़ा दिया है। पहले बाजार एक ही स्थान पर होते थे , किन्तु अब बाजार प्रान्तीय , राष्ट्र्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीयय हो गए है। वृहत उत्पादन लाभ -- वर्तमान में वस्तुओं का उत्पादन बड़े स्तर पर होता है तथा इनका बाजार में विक्रय किया जाता है। अतः विनिमय के आभाव में यह सम्भव नहीं था। सन्तुष्टि में वृद्धि -- विनि...
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मुद्रा विनिमय या अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय - विक्रय प्रणाली -- वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत उतपन्न समस्याओं के समाधान के लिए ऐसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत हुई , जिसके द्वारा इस समस्या का समाधान हो सके। इसी आवश्यकता के क्रम में मुद्रा का जन्म हुआ। हेन्सन के अनुसार मुद्रा का जन्म वस्तु विनिमय की कठिनाई से संबन्धित है। जब किसी भी विनिमय प्रणाली में मुद्रा विनिमय की भूमिका निभाने लगती है या मुद्रा विनिमय का माध्यम बन जाती है , तो वह प्रणाली मुद्रा विनिमय प्रणाली कहलाती है। दूसरे शब्दों में खा जाए तो वस्तुओं एवं सेवाओं के क्रय - विक्रय या आदान - प्रदान के लिए जब मुद्रा की सहायता की जाती है या उसका उपयोग किया जाता है ,तो वह प्रणाली मुद्रा विनिमय प्रणाली या क्रय - विक्रय प्रणाली कहलाती है। मुद्रा विनिमय प्रणाली के गुड़ -- वस्तु विनिमय प्रणाली की समस्याओं का निराकरण -- वस्तु विनिमय प्रणाली से उतपन्न समस्याओं को दूर करने के लिए मुद्रा विनिमय प्रणाली का विकास किया गया। वस्तुओं की विभाजयता -- मुद्रा विनिमय प्रणाली से वस्तुओं की विभाजयता या छोटे - छो...
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वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ -- वस्तु के विभाजन की कठिनाई -- कुछ वस्तुओं का हम विभाजन नहीं कर सकते है , विभाजन करने से उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है जैसे - टी वी हाथी , कार आदि। अतः विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाजित भी बड़ा कारण बनती है तथा इन वस्तुओं के बदले में उनके स्वामी को उचित मूल्य प्राप्त नहीं होता है। हस्तान्तर की असुविधा -- विनिमय प्रणाली के द्वारा बहुत सी वस्तुओं को हस्तान्तरित करने में समस्या उतपन्न होती है। जैसे - भवन ,, भूमि ,पशु , बड़ी वस्तु आदि। इस क्रिया में श्रम , धन तथा समय का अपव्यय भी होता है। वैकल्पिक आवश्यकता का आभाव -- दोहरे संयोग का आभाव विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है। इसमें एक व्यक्ति को ऐसे दूसरे व्यक्ति की तलाश करनी पड़ती है , जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु के बदले में स्वयं उस मनुष्य की वस्तु लेने को ततपर हो। इस प्रकार दो पक्षों का ऐसा पारस्परिक संयोग मिलना कठिन होता है। मूल्य के सर्वमान्य माप का आभाव -- विनिमय प्रणाली की एक अन्य समस्या मूल्य के सर्वमान्य माप का आभाव है। इसके अन्तर्गत मूल्य का कोई ऐस...
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वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय प्रणाली या अदला - बदली विनिमय प्रणाली -- जब व्यक्ति वस्तु या सेवाओं का आदान - प्रदान बिना किसी माध्यम के प्रत्यक्ष रूप से करता है , तो उसे वस्तु विनिमय कहा जाता है | साधारण शब्दों में वस्तुऔ का प्रत्यक्ष रूप से आदान - प्रदान वस्तु विनिमय कहलाता है | इसमें मुद्रा की भूमिका नहीं होती है | दूसरे शब्दों में कहा जाए तो , बिना रूपये - पैसे या धन के वस्तुओ के प्रत्यक्ष रूप से आदान - प्रदान को वस्तु विनिमय कहा जाता है | अर्थशास्त्र के कुछ विद्वानों ने वस्तु विनिमय को निम्न रूपों में परिभाषित किया है एस . ई . थाँमस के अनुसार एक वस्तु से दूसरी वस्तु की प्रत्यक्ष अद्ल - बदल ही वस्तु विनिमय कहलाती है | आर . पी . कैन्ट के अनुसार मुद्रा को विनिमय के माध्यम के रूप में प्रयोग किए बिना वस्तुओं का वस्तुओं में प्रत्यक्ष लेन - देन वस्तु विनिमय कहलाता है | वस्तु विनिमय प्रणाली के गुण -- विकेन्द्रीकरण प्रणाली -- वस्तु विनिमय प्रणाली का स्तर न्यूनतम तथा क्षेत्र सिमित होता है | वस्तुओं के कष्ट होने का भय लोगों के मन में बना रहता है | अतः वे वस्तुओ का अधिक मा...
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औद्योगिक उत्पादकता एवं कार्यकुशलता में वृद्धि हेतु सुझाव -- साख एवं बैंकिंग व्यवस्था में सुधार -- उच्च उत्पादक मशीनों की सहयता अथवा आयात तथा नए उद्योगों की स्थापना के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती है। इसके लिए साख व्यवस्था को मजबूरी प्रदान करने के साथ - साथ बैंकिंग व्यवस्था में सुधार आवश्यक है। विदेशी निवेश को प्रोत्साहन -- विदेशी निवेश से न केवल पूँजी का आगमन होता है , अपितु नई तकनीकों का भी आगमन होता है , साथ ही इससे आधुनिक तथा उच्च उत्पादक मशीनों एवं तकनीकें प्राप्त होती है। संरचनात्मक सुविधाओं का विकास -- परिवहन एवं संचार साधनों के विकास तथा ऊर्जा उपलब्धता की सुनिश्चितता औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक है। नई तकनीक का उपयोग -- उच्च उत्पादकता एवं कार्र्कुशलता अधिकतर तकनीक पर ंनिर्भर होती है , इसलिए आधुनिक एवं उपयोगी तकनीकों का उद्योग में विस्तार किया जाना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का सर्वेक्षण एवं दोहन --- भारत में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बाद भी पर्याप्त ढंग से दोहन नहीं हो पा रहा है। इससे उद्योगों को उचित मात्रा एवं मूल्य पर कच्चा माल उपलब्ध नहीं हो ...
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अल्प उत्पादकता -- एक निश्चित समय में उत्पादन के किसी साधन द्वारा अपनी क्षमता से कम उत्पादन करना अल्प उत्पादकता कहलाता है। इससे तातपर्य यह है कि उत्पादन के लागत एवं निर्गत के नकारात्मक अनुपात का होना। उदाहरण के लिए किसी मशीन की क्षमता एक घण्टे में 100 वस्तु उत्पादन करने की है , लेकिन मशीन एक घण्टे में केवल 50 वस्तु का उत्पादन कर रही है , इसका अर्थ है कि मशीन की उत्पादकता अल्प है। औद्योगिक अकुशलता एवं अल्प उत्पादकता के कारण -- औद्योगिक अकुशलता एवं अल्प उत्पादकता के कारण भारत में अभी भी उच्च कोटि के तकनीकी प्रशिक्षण की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। तकनीकी पिछड़ापन , अल्प उत्पादकता का एक मुख्य कारण है। पूँजीगत आभाव -- औद्योगिक कार्यकुशलता को बेहतर करने अथवा आधुनिकीकरण के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी को आवश्यकता होती है। भारत में वित्तीय संस्थाओं की अपर्याप्त उपलब्धता औद्योगिक उत्पादकता एवं कार्यकुशलता को प्रभावित करती है। कच्चे माल का आभाव -- भारत में बहुत से उद्योग कच्चे माल के लिए विदेशी आयात पर निर्भर रहते है इससे उत्पादन लागत बढ़ने के अतिरिक्त उपयुक्त समय पर गुडवत्ता वाला कच्चा माल उपल...
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भारत में योजना से संबन्धित संस्थाएँ -- योजना आयोग -- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अर्थव्यवस्था को सुनिश्चित दिशा प्रदान करने के लिए नियोजित प्रयास की आवश्यकता महसूस की गई। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मंत्रिमण्डल के एक प्र्ताव के माध्यम से 15 मार्च , 1950 को योजना आयोग की स्थापना हुई। योजना आयोग एक गैर - वैधानिक निकाय था , जिसका पदेन अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता था। देश के विकास के लिए आर्थिक लक्षयों तथा प्राथमिकताओं को निर्धारित करने वाले योजना आयोग का अस्तित्व वर्ष 2015 में समाप्त हो गया। वर्तमान में योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग की स्थापना 1 जनवरी 2015 को की गई। योजना आयोग के कार्य -- पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण -- योजना आयोग का सबसे प्रमुख कार्य देश के आर्थिक विकास हेतु पंचवर्षीय योजना का निर्माण करता है। योजना आयोग ही पंचवर्षीय योजना का प्रारूप बनाता है तथा उसे राष्ट्रिय विकास परिषद द्वारा स्वीकृत किया जाता है। देश के संसाधनों का आकलन -- योजना आयोग देश के भौतिक तथा अभौतिक संसाधनों का आकलन करता है जिससे कि उनके उचित दोहन हेतु नियोजन किया जा सके योजनाओं का संचालन एवं मू...
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भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण -- किसी राष्ट्र को अर्थव्यवस्ठा का वैश्विक अर्थव्यव्स्था के साथ एकीकरण हो जाना ही भूमण्डलीकरण है। भूमण्डलीकरण से वस्तुओ , सेवाओं , तकनीकों तथा श्रम स्वतंत्र प्रवाह पूरे विश्व में होने लगता है , जिससे आर्थिक विकास तीव्र गति से होता है। भारत में वैश्वीकरण तथा निजीकरण को वर्ष 1919 की नई आर्थिक नीति में अपनाया गया। भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण के उद्देश्य -- वैश्वीकरण का मुख्य उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना है। विकसित देशों में उपयोग की जा रही आधुनिक तकनीकों तथा बेहतर प्रबंन्ध व्यवस्था को भारत में लाने का प्रयास करना। विदेशी तकनीकों से उत्पादन एवं उत्पादक क्षमता में वृद्धि लाना तथा उत्पादित वस्तुओं की गुडवत्ता में सुधार करना। संस्थागत तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से आर्थिक विकास को गति प्रदान करना। भारतीय बाजार को वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के लिए तैयार करना। औद्योगिक विकेन्द्रीकरण -- औद्योगिक विकेन्द्रीकरण से तातपर्य उद्योगों का क्षेत्रीय बिखराव है अर्थात उद्योगों का संकेन्द्रण किसी एक क्षेत्र में नही होनी चाहिए , ...
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भारत की औद्योगिक नीति -- औधोगिक नीति का अर्थ सरकार के उन निर्णयों एवं घोषणाओं से है , जिनमे उद्योगों के लिए अपनाई जाने वाली नीतियों का उल्लेख होता है। इस औद्योगिक नीति से सरकार की भावी योजनाओ एवं रणनीतियों का पता चलता है। इससे विभिन्न औद्योगगक क्षेत्रों की भूमिका तथा विदेशी पूँजी निवेश की दिशा तय होती है। स्वतंत्र्रता प्राप्ति से अब तक 6 बार औद्योगिक नीति की घोषणा की जा चुकी है। पहली औद्योगिक नीति 6 अप्रेल 1948 में घोषित की गई थी। औद्योगिक नीति 1948 -- भारत की पहली औद्योगिक नीति में उद्योगों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया था। 1 सरकारी एकीकरण वाले उद्योग। 2 सरकारी एकीकरण वाले उद्योग , लेकिन कार्यरत निजी उद्योगों को छूट प्राप्ति वाले उद्योग। 3 निजी क्षेत्र में स्थापित उद्योग , जिन पर सरकारी नियंत्रण रखा गया। 4 निजी क्षेत्र में स्थापित उद्योग। औद्योगिक नीति 1956 -- वर्ष 1956 में दूसरी औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। इसमें उद्योगों की तीन श्रेणियाँ बनाई गई थी। 1 सरकारी एकाधिकार वाले 17 उद्योग। 2 सरकारी नियंत्रण वाले 12 निजी उद्यो...
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औद्योगिक विकास की सम्भावनाएँ -- भारत की विशाल आबादी और वृहत भौगोलिक विस्तार औद्योगिक विकास की अपार सम्भावनाएँ पैदा करते है। प्रचुर प्राकृतिक संसाधन -- 32 लाख वर्ग किमी से अधिक में विस्तृत भारत्त विश्व का सातवाँ क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा देश है , जहाँ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है। यहाँ विभिन्न प्रकार के खनिज संसाधन मिलती है , जो उद्योगों के लिए आवश्यक है। कृषि योग्य उर्वर भूमि की प्रचूरता -- उत्तरी भारत के विशाल मैदान तथा अन्य नदी बेसिन के अन्तर्गत भारत के कृषि योग्य भूमि की काफी उपलब्धतता है कृषि से न केवल विशाल आवादी का पेट भारत है ,अपितु बहुत सारे उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त होता खाद्य प्रसंस्करण उद्योग , औषधि उद्योग आदि कृषि उत्पादों पर निर्भर करते है। मानवीय संसाधन -- विश्व के दूसरे सर्वाधिक जनसंख्या वाले भारत को सबसे युवा राष्ट्र माना जाता है। जहाँ युवा लोगों की आबादी विश्व में सबसे अधिक है , इसलिए उद्योगों को श्रम आपूर्ति की कोई समस्या नहीं होती है। सरकारी प्रयास के माध्यम से मानवीय कुशलता को बेहतर किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में भारत जननांकिकीय ...
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औद्योगिक विकास की उपलब्धियाँ -- पंचवर्षीय योजनाओं तथा औद्योगिक विकास के प्रति सरकार की नीति के कारण भारत में औधोगिक विकास काफी तेज हुआ है। औद्योगिक विकास के संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था की उपलब्धियों को निमन रूप में बताया है। 1 औद्योगिक विकास से देश की अर्थव्यवस्था को बल मिला है तथा आर्थिक विकास की गति तीव्र हुई है। 2 सर्वजनिक उपक्रमों का तेजी से विकास हुआ है। 3 आधारभूत संरचनाओं का विकास भी औद्योगिक विकास की ही देन है। 4 औद्योगिक विकास के कारण ही भारी मशीनरी , इंजीनियरिंग वस्तुओं तथा उतपन्न उद्योगों के विकास में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई है। 5 औद्योगिक विकास के कारण ही आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित हुई है। 6 साँफ्टवेयर में उच्च प्रगति भी औद्योगिक विकास की ही देन है। 7 रोजगार सृजन , जीवन स्तर में वृद्धि तथा सामाजिक विकास की बेहतर होती स्थिति औद्योगिक विकास की उपलब्धियों को सिद्ध करती है। औद्योगिक विकास के लिए उठाए गए कदम -- स्वतंत्रता प्राप्ती के साथ ही भारत में औद्योगिक विकास की दिशा में गम्भीर प्रयास किए गए। तत...
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औद्योगिक नियोजन की समस्याएँ तथा असफलता के कारण -- भारत में औद्योगिक विकास लिए अपनाई गई नियोजन प्रक्रिया से औद्योगिक विकास तो हुआ , लेकिन अपेक्षित तथा लक्षय के अनुरूप नहीं हुआ। औद्योगिक विकास के अपेक्षित न होने का मूल कारण औद्योगिक नियोजन में व्याप्त समस्याएँ है। लक्षयों की अनुरूप उपलधियों का आभाव -- सरकार औद्योगिक नियोजन के माध्यम से औद्योगिक विकास को अधिकतम करना चाहती है , परन्तु अतार्किक लक्षयों के निर्धारण की वजह से औद्योगिक विकास का लक्षय नहीं हो पाता है। फलतः लक्षयों और उपलब्धियों में अन्तर दिखाई पड़ता है। अनुत्पादक क्षेत्र में निवेश -- भारत का औद्योगिक निवेश अधिकांशतः अनुत्पादक क्षेत्र में हो रहा है , परिणामस्वरूप औद्योगिक विकास लक्षय के अनुरूप नहीं है। औद्योगिक नीयजन में माँग पर ध्यान नहीं देना -- उद्योगों की सफलता व्यापारिक या बजार की माँग पर निर्भर होती है लेकिन भारत औद्योगिक नियोजन में इस माँग पर ध्यान नहीं दिया जाता है। इसीलिए समस्या नहीं होती है। क्षमता से कम उत्पादन -- औद्योगिक नियोजकों ने वृहत क्षमता वाले उद्योगों की स्थापना पर...
औद्योगिक विकास की समस्याऐ --
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औद्योगिक विकास की समस्याऐ -- पूँजी तथा वित्तीय संस्थाओं का आभाव -- औद्योगिक विकास के लिए पूँजी की काफी बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है। इसके लिए सस्ती एवं सरल वित्तीय सहायता संस्थाओं की आवश्यकता होती है। यद्यपि इस क्षेत्र में सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे है। परन्तु अभी भी यह समस्या बनी हुई है। संरचनात्मक एवं ऊर्जा संसाधनों का आभाव -- औद्योगिक विकास के लिए सड़क , बिजली , पानी आदि मूलभूत सुविधा अनिवार्य होती है , लेकिन भारत में इन सुविधाओं का आभाव दिखाई पड़ता है। जहाँ संरचनात्मक सुविधाएँ बेहतर है , वहाँ औद्योगिक विकास का स्तर भी अपेक्षाकृत ऊँचा है। कुशल कर्मचारियों की कमी -- गुणवत्तायुक्त शिक्षा की अनुपलब्धता , व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की कमी , प्रशिक्षण व्यवस्था का आभाव आदि के कारण औद्योगिक विकास में समस्या आती है। आधारभूत उद्योगों की कमी -- स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर वर्तमान समय तक भारत आधारभूत उद्योग जैसे - लौह - अयस्क उद्योग , एल्युमिनियम उद्योग , भारी मशीनरी उद्योग आदि की कमी से जूझता रहा है। इसका प्रभाव औद्योगिक विका...
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सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं राशनिंग -- सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक ऐसी व्यवस्था है , जिसमे आवश्यक उपभोग की कुछ वस्तुओं अथवा खाद्य पदार्थ को न्यूनतम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराया जाता है। सरकार द्वारा आम लोगों को अनिवार्य वस्तुएँ - खाद्यान्न चीनी , मिटटी का तेल आदि आवश्य वस्तुएँ उचित दर की दुकानों द्वारा वितरित की जाती है। इस सेवा को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम से जाना जाता है। सरकार द्वारा नियंत्रित मूल्य तथा मात्रा में वस्तुओं की आपूर्ति करना राशनिंग कहलाता है। भारत में राशनिंग के मुख्य अंग है - साँफ्ट कोक डिपो , सुपर बाजार तथा सहकारी उपभोक्ता भण्डार। भारत में अधिकांश आबादी आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई है , जिसको बाजार के उतार - चढ़ाव तथा महँगाई से बचाना आवश्यक होता है। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक वितरण प्रणाली महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त इससे खाद्य सुरक्षा भी उपलब्ध हो पाती है , जिससे कुपोषण एवं भुखमरी पर नियंत्रण हो पाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ददेश्य -- उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से नियंत्रित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएँ एवं खाद्यान जैसे -- चावल , गेहूँ ,...
उत्पादन तथा वितरण पर राजकीय नियंत्रण -
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उत्पादन तथा वितरण पर राजकीय नियंत्रण -- आर्थिक विकास को सही दिशा में निर्देशित करने के लिये केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें उत्पादन एवं वितरण को विभिन्न उपायों द्वारा नियंत्रित करने का प्रयास करती है। सरकार राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति के अतिरिक्त औद्योगिक लाइसेन्सिंग तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से उत्पादन एवं वितरण को नियंत्रित करती है। उत्पादन के क्षेत्र में नियंत्रण -- सरकार की औद्योगिक नीति व लाइसेन्सिंग प्रक्रिया के माध्यम से अर्थव्यवस्था के औद्योगिक क्षेत्र को नियंत्रित किया जाता है। औद्योगिक लाइसेन्सिंग -- लाइसेन्सिंग का अर्थ लिखित अनुमति होता है अर्थात किसी उद्यम की स्थापना के लिए सरकार से प्राप्त की गई लिखित अनुमति। औद्योगिक लाइसेन्सिंग के माध्यम से सरकार औद्योगिक निवेश एवं उत्पादन को नियंत्रित करती है। कुछ उद्योगों को लघु उद्योग के रूप में संरक्षित कर सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। भारत की औद्योगीक लाइसेन्सिंग प्रणाली -- भारत में औद्योगिक लाइसेन्सिंग की शुरुआत वर्ष 1948 की औद्योगिक नीति से हुई। वर्ष...
मौद्रिक नीति नियंत्रण
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मौद्रिक नीति नियंत्रण -- केंद्रीय बैंक द्वारा कुछ सुनिश्ति उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु मुद्रा तथा साख की आपूर्ति को नियंन्त्रित करने के लिए बनाई गई नीति मौद्रिक नीति है। 1 मात्रा में परिवर्तन करके 2 गति में परिवर्तन करके 3 उपलब्धता में परिवर्तन करके 4 लागत में परिवर्तन करके मौद्रिक नीति का उद्देश्य -- मुद्रा की माँग तथा पूर्ति में सन्तुलन स्थापित करना व्याज दर के नियंत्रण तथा नियमन के माध्यम से बैंकिंग व्यवस्था को विकास एवं मूल्य नियंत्रण में शामिल करना। मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करके विदेशी व्यापार में संतुलन स्थापित करना। आन्तरिक मूल्यों में स्थिरता लाना। आर्थिक विकास को गति प्रदान करना। घरेलू वचत को प्रोत्साहित करना। मौद्रिक नीति की विधियाँ -- परिमाणात्मक विधि -- बैंक दर , खुले बाजार की क्रियाएँ , न्यूनतम रक्षित कोष गुणात्मक विधि -- चयनात्मक साख नियंत्रण , साख की राशनिंग , नैतिक प्रभाव , प्रचार , प्रत्यक्ष कार्यवाही मन्दी के दिनों में मौद्रिक नीति के द्वारा पूर्ति में वृद्धि व्याज दर में कमी तथा इसके अतिरिक्त तेजी के दिनों में पूर्ति म...
राजकीय नीती -
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राजकीय नीती -- जब सरकार विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपनी आय व्यय को नियंत्रित एवं नियमित करने के लिए कोई नीति बनती है , तो वह नीति राजकोषीय नीती कहलाती है प्रो आर्थर स्मिथीज़ के अनुरति है सार राजकोषीय नीति वह नीति है जिसे सरकार अपने व्यय तथा आगमन के कार्यक्रम को राष्ट्रिय आय उत्पादन तथा रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने और आवांछित प्रभावों को रोकने के लिए प्रयुक्त करती है। राजकोषीय नीति के उद्देश्य -- पूँजी निर्माण -- आवांछित उपभोग को नियंत्रित करके पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि करना निवेश प्रोत्साहन -- सन्तुलन एवं नियोजित निवेश करना। रोजगार सृजन -- राजकोषीय नीति का मुख्य उद्देश्य विकास कार्यों के माध्यम से रोजगार के नए अवसरों को उतपन्न करना है। मन्दी पर नियंत्रण -- विभिन्न प्रकार के करों की दर में परिवर्तन करके तथा सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करके उत्पादन तथा रोजगार के अवसरों को बढ़ाना राजकोषीय नीति का मुख्य लक्ष होता है जिससे आर्थिक मन्दी पर नियंत्रण सम्भव होता है मूल्य नियंणतत्रण -- विभिन्न प्रकार के मौद्रिक...
राजकीय हस्तक्षेप की विधियाँ --
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राजकीय हस्तक्षेप की विधियाँ -- भारत एक विकासशील राष्ट्र है। यहाँ की अर्थव्यवस्था मिश्रित प्रकार की है। इसलिए यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र एक साथ अधिक विकास में भूमिका निभाते है। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के आर्थिक प्रयासों को राज्य के समग्र विकास की तरफ निर्देशित करने के लिए सरकार या राज्य कई तरीके या विधियाँ अपनाता है। प्रत्यक्ष विधि -- सरकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए जब प्रत्यक्ष रूप से भूमिका निभाने लगती है , तो वह तरीका प्रत्यक्ष विधि के अंतर्गत आता है। कानून एवं व्यवस्था की स्थापना -- आर्थिक किर्याओं के शान्तिपूर्ण संचालन के लिए कानून - व्यवस्था की स्थापना आवश्यक है। सरकार विभिन्न प्रकार के कानूनों तथा पुलिस - प्रशासन के साथ मिलकर कानून एवं व्यवस्था की स्थापना करती है। आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता -- सभी प्रकार की आर्थिक क्रियाओं के सम्पादन के लिए सड़क , बिजली , पानी ,ऊर्जा तथा संचार जैसी सुविधाओं की आवश...
राजकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता --
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राजकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता -- देश के सामाजिक - आर्थिक विकास को गति प्रदान करने तथा उसे सही दिशा देने के लिए राजकीय हस्तक्षेप आवश्यक होता है। सरकार का यह कर्तव्य है कि साधारण जनता के कल्याण को अधिकतम करे। कुशल प्रशासन तथा कानून व्यवस्था की स्थापना -- आर्थिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की पूर्ण अनिवार्यता होती है। इसके अतिरिक्त सामाजिक तथा आर्थिक स्थिरता एवं शान्ति की भी आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में सरकार पुलिस तथा प्रशासन के माध्यम से हस्तक्षेप करती है। विकास का वातावरण पैदा करना -- आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि देश के आर्थिक वातावरण को उद्योगों के अनुकूल बनाया जाए। इसके लिए सरकार सामाजिक उन्नयन तथा शिक्षा के माध्यम से हस्तक्षेप करती है। प्रेरक वातावरण बनाना -- आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के लिए आर्थिक प्रेरणा जरूरी होती है। इसके लिये सरकार विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयास करती है। उपयुक्त संस्थाओं के माध्यम से हस्तक्षेप -- आर्थिक विकास को सही दिशा प्रदान करने के लिए राज्य विभिन्न प्रकार की संस्थाओं जैसे - न...
व्यापार सन्तुलन
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व्यापार सन्तुलन -- व्यापार सन्तुलन से तातपर्य दृश्य भौतिक वस्तुओं के आयात - निर्यात के मूल्यों के कुल अन्तर शेष से है। किसी देश का व्यापार सन्तुलन उस देश के आयात - निर्यात के अन्तर को दर्शाता है। व्यापार सन्तुलन के प्रकार -- अनुकूलन व्यापार -- जब आयात मूल्य की अपेक्षा निर्यात मूल्य अधिक हो अर्थात विदेशो से मंगाई गई वस्तुओं के मूल्य विदेशों में भेजी गई वस्तुओं का मूल्य अधिक हो , तो उसे अनुकूल व्यापार सन्तुलन कहा जाएगा। प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन -- यह अनुकूल व्यापार सन्तुलन की विपरीत स्थति है अर्थात निर्यात मूल्य की अपेक्षा आयात मूल्य अधिक होती है। सन्तुलन व्यापार सन्तुलन -- जब आयात एवं निर्यात मूल्य सन्तुलन या बराबर की स्थिति में होता है , तो उसे मूल्य सन्तुलित व्यापार सन्तुलन कहा जाता है। भुगतान सन्तुलन -- भुगतान सन्तुलन आयात एवं निर्यात के लिये किए जाने वाले भुगतानों एवं प्राप्तियों की स्थिति को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए , तो विदेशी व्यापार के लिए होने वाले लेन - देन...
भारत के विदेशो व्यापार की दिशा --
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भारत के विदेशो व्यापार की दिशा -- विदेशी व्यापार की दिशा से तातपर्य उन राष्ट्रों से है , जिन्हे कोई राष्ट्र वस्तुओं का निर्यात करता है। तथा राष्ट्रों से वह वस्तुओं का आयात करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत के विदेशी व्यापार की दिशा में काफी परिवर्तन आया है। भारत का व्यापार किसी विशेष देश या क्षेत्र तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी हो गया है स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद तक भारत प्राथमिक वस्तुओं का निर्यातक देश था , लेकिन अब इंजीनियरिंग , आभूषण , साँफ्टवेयर आदि का मुख्य निर्यातक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत खाद्यान्न आयातक देश था , जो अब निर्यातक राष्ट्र बन गया है। पहले कुल आयात में पेट्रो पदार्थों की हिस्सेदारी वर्तमान समय जितनी नहीं थी। पिछले दो दशकों में निर्यात की दिशा पूर्वी एशिया की तरफ हो गई है। वर्तमान समय में फोकस अफ्रीका के अन्तर्गत अफ्रीकी देशों से विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने पर बल दिया जा रहा है। विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ -- भारत का अधिकांश व्याप...
भारत के प्रमुख निर्यात --
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भारत के प्रमुख निर्यात -- कृषि संबन्धी उत्पाद -- वर्ष 2013 - 14 में भारत के कुल निर्यात में कृषि संबंधी उत्पाद की हिस्सेदारी लगभग 12% है। प्रमुख कृषि निर्यात मदों में से मसाले , जूट , खल , चाय , तम्बाकू आदि शामिल हैं। इनका निर्यात मुख्यतया संयुक्त राज्य अमेरिका , यूरोप , रूस , अफ्रीका आदि देशों को होता है। अयस्क व् खनिज -- भारत में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है , इसलिए यहाँ से मैंगनीज़ , अभ्र्क , कच्चा लोहा आदि का निर्यात जापान , अमेरिका आदि देशों में किया जाता है वर्ष 2013 - 14 में 34,827 रु करोड़ निर्यात किया गया। इंजीनियरिंग सामान -- भारत बड़ी मात्रा में मोटर , बिजली सामान , टेलीफोन आदि को निर्यात करता है। श्रीलंका खाड़ी देश , सूडान , हंगरी आदि देशों को निर्यात किए जाने वाले इंजीनियरिंग सामानों का कुल निर्यात में हिस्सा लगभग 20% है। चमड़ा तथा चमड़े का सामान -- भारत चमड़ा तथा चमड़े से निर्मित सामान बहुत बड़ा निर्यातक है। इसका मुख्यतया संयुक्त राज...
भारत का विदेशी व्यापार --
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भारत का विदेशी व्यापार -- विदेशी व्यापार की संरचना का तातपर्य निर्यात तथा आयात की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के प्रकार से हैं। वर्तमान समय में भारत विविध प्रकार की वस्तुओं का आयात व् निर्यात करता है। इसमें प्राथमिक उत्पाद से लेकर साँफ्टवेयर उत्पाद तक शामिल होते हैं। भारत के प्रमुख आयात -- पेट्रोलियम, तेल एवं स्नेहक -- पेट्रोलियम पदार्थ भारतीय आयात का सबसे बड़ा भाग होता है। सम्पूर्ण आयात का लगभग 33 % भाग पेट्रोलियम पदार्थ होते हैं। इसका आयात मुख्यतया सऊदी , ईरान , कुवैत , वेनेजुएला आदि देशों से होता है। स्वर्ण एवं कीमती पत्थर -- भारत में स्वर्ण तथा हीरे - जवाहरात उपलब्धता बहुत कम है , जबकि आभूषण उद्योग को इसकी आवश्यकता बहुत होती है , इसलिए भारत में स्वर्ण एवं पत्थरों का प्रमुखता से आयात किया किया जाता है। रसायन -- भारत कई प्रकार के रसायनों , दवाइयों , रंगने का सामान आदि का बड़ी मात्रा में आयात करता है। इसका अधिकांश...