कूका या नामधरी आन्दोलन -- 19 वीं शताब्दी में पंजाब के कई धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन हुए। इस आन्दोलनों के कूका आन्दोलन का स्थान प्रमुख है। कूका आन्दोलन के समर्थकों का प्रमुख सिद्धान्त ईश्वर के नाम का जप करना था , इसलिए इसे नामधारी आन्दोलन भी कहा जा सकता है। इस सम्प्रदाय से जुड़े लोग जोर - जोर से ईश्वर के भजन गेट थे ,इसलिए इन्हें कूके चिल्लाने वाला भी कहा गया। कूका आन्दोलन की स्थापना गुरु बालक सिंह ने की थी , लेकिन वास्तविक संस्थापक और प्रणेता गुरु राम सिंह 1816 - 85 थे। 1838 में गुरु राम सिंह , गुरु बालक सिंह के विचारों से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए थे। 1857 में राम सिंह ने अपने गाँव में नामधारी आन्दोलन की नींव रखी। गुरु राम सिंह ने सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध प्रचार - प्रसार किया। उन्ही के नेतृत्व में नामधारियों ने पंजाब में सिख राज्य की पुनर्स्थापना का प्रयास किया। नामधारी आन्दोलन के प्रचार - प्रसार करे लिए गुरु रामसिंह ने देशभर में प्रचार केन्द्र स्थापित किए। पंजाब में ही इन केन्द्रों की संख्या 22 थी। दीप्ती नामक अधिकारी इन प्रचार केन्द्रों की कमान सम्भालता था। 1871 में इस...
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मुस्लिम सुधार आन्दोलन -- 19 वीं शताब्दी तक मुस्लिम समाज और इस्लाम धर्म में भी सामाजिक बुराइयों का समावेश हो गया था। हिन्दू आन्दोलन की प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम समान भी नवजागरण आन्दोलन से अछूता नहीं रहा। वहाबी आन्दोलन -- भारत का वहाबी आन्दोलन अरब के वहाबी आन्दोलन से प्रभावित था। इस आन्दोलन की शुरुआत अरब में मुहम्मद अब्दुल वहाब ने की थी। भारत में इस आन्दोलन का पचार - प्रसार सैयद अहमद बरेलवी 1786 - 1831 में किया था। इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य अपने धर्म का प्रचार करना और मुस्लिम समाज की कुरीतियों को दूर करना था। सैयद अहमद बरेलवी ने जनसाधारण के सरलता से समझने योग्य बनाने के लिए कुरान को उर्दू भाषा में अनुवादित कराया। अलीगढ़ आन्दोलन -- मुस्लिम सुधार आन्दोलन में अलीगढ़ आन्दोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस आन्दोलन के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खाँ 1817 - 1893 थे। इन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन किया। वह सरकार और मुसलमान के बीच दूरी को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने 1875 अलीगढ़ मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज स्थापना की। 1920 में यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय...
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रामकृष्ण मिशन स्वामी विवेकानन्द -- रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1897 में वेल्लूर में स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस जो एक संत एवं चिंतक थे , की स्मृति में की थी। स्वामी विवेकानन्द -- स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इन्होंने पाश्चात्य दर्शन के साथ हिन्दू धर्म और दर्शन का भी गहन अध्ययन किया था। लगभग 20 वर्ष की आयु में वह रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए और अपनी विचारधारा , लगन तथा समाज कल्याण की भावना के कारण जल्द ही रामकृष्ण परमहंन्स के प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानन्द संस्कृत और अंग्रेजी के उच्च कोटि के बक्ता थे। अपनी योग्यता के बल पर उन्हें 1893 में शिकांगो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधत्व करने का अवसर मिला। संयुक्त राज्य अमेरिका जाने के पूर्व महाराज खेतड़ी के सुझाव पर उन्होंने अपना नाम नरेन्द्रनाथ के बजाय स्वामी विवेकानन्द रख लिया। उन्होंने दिन - दुखियों की निःस्वार्थ सेवा की 14 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। उनके ...
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सत्यशोधक समाज ज्योतिबा फूले -- सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फूले ने 24 सितंबर 1873 को की थी। उन्होंने इस संगठन के माध्यम से दलित वर्गों को न्याय दिलाने की दिशा में आन्दोलन चलाया। इनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को सतारा महाराष्ट्र के कोटगन गाँव में हुआ। इनके परिवार में फूलों का काम होता था , इसलिए उन्हें फूले भी कहा जाता था। इन्होंने ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड विरोध किया और इसके प्रति लोगों को भी जागरूक किया। महाराष्ट्र में अछूतोद्धार एवं महिला शिक्षा दिशा में कदम उठाने वाले पहले व्यक्ति थे। ज्योतिबा फूले ने गुलाम गिरी और सार्वजनिक सत्यधर्म नामक पुस्तक की रचना की। वर्ष 1888 में बम्बई की सभा में इन्हें महात्मा की उपाधि दी गई। 28 नवमबर 1890 पूर्ण में इनका निधन हो गया। सत्यशोधक समाज के प्रमुख सिद्धांत -- 1 स्त्रियों समाज में उच्च स्थान दिलाने के लिए प्रेरित करना। 2 शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाना। 3 जातिगत भेदभाव , छुआछूत और वर्गीय भेदभाव का विरोध करना। 4 समाज में सर्वधर्म समभाव और पारस्परिक सहनशीलता भावना उतपन्न करना। 5 ...
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आर्य समाज स्वामी दयानन्द सरस्वती -- आर्य समाज की स्थापना दयानन्द सरस्वती ने 1875 में बम्बई में की थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 में काठियावाड़ गुजरात के एक ब्रह्ममण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। बचपन में साथ एक घटना घटित हुई। इन्होने मन्दिर में शिवरात्रि के पर्व पर शिवलिंग पर एक चूहे को घूमते हुए देखा इनके मन में विचार आया कि मूर्तिपूजा एक पाखण्ड है। 22 वर्ष की आयु में इन्होंने गृह त्याग कर दिया। मथुरा में इन्होंने स्वामी विरजानन्द से वैदिक धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी जी ने आगरा से अपने उद्देश्यों का प्रचार - प्रसार किया। इन्होंने मूर्ति पूजा , बहुदेववाद , अवतारवाद , पशुबलि प्रथा यंत्र - मंत्र - तंत्र और कर्मकाण्ड विरोध किया। इन्होंने सन्देश दिया कि वेदों आधार पर भारतीय समाज का पुनः निर्माण किया जा सकता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुनः वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाशन नामक पुस्तक की रचना की 30 अक्टूबर 1883 को इनका निधन हो गया था। आर्य समाज के सिद्धान्त -- 1 वेद ही सत्य और...
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ब्रह्म समाज के प्रमुख कार्य -- सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त -- इनके समय सती प्रथा एक ज्वलन्त समस्या थी। इसके विरोध के लिए इन्होंने अपनी पत्रिका संवाद कौमुदी का उपयोग किया। सरकार द्वारा 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाए जाने का स्वागत किया। और इस प्रक्रिया रूढ़िवादियों द्वारा दायर याचिका का इग्लैण्ड में भी विरोध किया। इन्होंने विधवा पुनर्विवाह में आन्दोलन चलाया। बाल विवाह का विरोध , जाति प्रथा , छुआछात का विरोध इत्यादि इनके प्रमुख उद्देश्य थे। राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना -- यध्यपि राजा राममोहन राय ने प्रत्यक्ष रूप से राजनीति नहीं लिया , किन्तु ये स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीयता के कटटर समर्थक थे। इन्होंने लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा लोगों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। इनके द्वारा प्रेस की स्वतंत्र्रता पर बल दिया गया , जिसके माध्यम से लोगों में जागरूकता का विकास हुआ। सामाजिक भेदभाव का उन्मूलन -- ब्रह्म समाज ने भातृत्व प्रेम व् एकेश्वरवाद के माध्यम से सामाजिक भेदभाव के उन्मूलन हेतु प्रयास किए तथा सभी ...
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19 वीं शताब्दी के धर्मिक और समाजिक सुधार आन्दोलन -- 19 वीं शताब्दी में भारत में अनेक सामाजिक एवं धर्मिक सुधार आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों का भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पर व्यापक प्रभाव पड़ा। समाज से अन्धविश्वास तथा अन्य कुरीतियाँ दूर हो गई , जिन्होंने समाज को एक नई दिशा प्रदान की तथा राष्ट्र्रीयता की भावना को जाग्रत किया। ब्रह्म समाज राजा राममोहन राय -- ब्रह्म समाज की स्थापना 1828 में कलकत्ता में राजा राममोहन राय ने की थी। ब्रह्म समाज 19 वीं शताब्दी का पहला सुधार आन्दोलन था। राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजा राममोहन राय को बंगाली , संस्कृत और अरबी - फारसी का अच्छा ज्ञान था। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी , फ्रेंच और लैटिन भाषा का भी अध्ययन किया। राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद में विकास किया और मूर्ति पूजा , अवतारवाद का विरोध किया। राजा राममोहन राय के उद्देश्यों का सार सर्वधर्म सम्भव था। 1815 में इन्होंने कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की। इनके द्वारा 1819 में बंगाली समाचार - पत्र संवाद कौमुदी की शुरुआत की गई तथा 1819 में ही इन...
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1857 के स्वतंत्रता संग्राम का परिणाम -- 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हालाँकि असफल रहा , लेकिन इस आन्दोलन ने भारत की दिशा बदल दी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त -- प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश संसद ने भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। 1 नवंबर 1857 को महारानी विक्टोरिया की घोषणा के आधार पर भारतीय शासन की बागडोर सीधे इग्लैण्ड सरकार हाथों में आ गई अर्थात भारतीय शासन पर ब्रिटिश की संसद का नियंत्रण स्थापित हो गया। गवर्नर जनरल के पद की समाप्ति -- भारतीय शासन पर ब्रिटिश संसद सर्वोच्चता स्थापति होने से भारत में गवर्नर जनरल के पद का अन्त कर दिया गया। अब गवर्नर जनरल के स्थान पर वायसराय का पद बनाया गया। .अन्तिम गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग को ही भारत का प्रथम वायसराय बनाया गया , साथ ही बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को भंग करके उनके स्थान पर भारत मंत्री का पद सृजित किया गया। मुगल साम्राज्य और पेशवा के पद का अन्त -- 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश अधिकारीयों अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर बन्दी...
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प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के कारण -- प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों ने वीरता , साहस और उत्साह के बल पर अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे , लेकिन कूटनीति और षड्यंत्र के बल पर अंग्रेज इस आन्दोलन को दबाने में सफल रहे। समय से पूर्व क्रान्ति की शुरुआत -- अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के लिए 31 मई 1857 की तिथि निश्चित की गई थी , लेकिन चर्बी वाले कारतूस की घटना के कारण 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह हो गया। विद्रोह की यह आग देश के अन्य हिस्सों में धीरे - धीरे फैली। यदि यह विद्रोह पुरे देश में एक ही तिथि को होता , तो अंग्रेजों के लिए इसका दमन करना सम्भव नही था। कुशल नेतृत्व का आभाव -- क्रांतिकारियों ने वीरता और साहस का परिचय देते हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से कड़ा मुकाबला किया था , लेकिन उनमे योग्य नेतृत्व का आभाव था। बहादुरशाह जफर बुजुर्ग होने के कारण युद्ध - क्षेत्र में जाने में असमर्थ थे। नाना साहब ने भी दूरदर्शिता का आभाव था। इसके विपरीत अंग्रेजी सेना में नील , आउटरम , हूरोज , निकलसन , कैंपबेल जैसे योग्य सेनापति थे। उचित संगठन व् य...
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1857 के स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख नेता -- मंगल पाण्डे -- मंगल पाण्डे बैरकपुर बंगाल की ब्रिटिश छावनी में तैनात वीर सैनिक था। 29 मार्च 1857 को परेड के दौरान उसने चर्वी युक्त कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। क्रोधित अंग्रेज अधिकारियों ने मंगल पाण्डे को हथियार डालने का आदेश दिया , तो इसने दो अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेण्ड बाग एवं लेफ्टिनेण्ट जनरल हुमस को गोली मारकर हत्या कर दी। अंग्रेजों ने 8 अप्रैल 1857 को मंगल पाण्डे को फाँसी की सजा दी। मंगल पाण्डे का यह बलिदान ही 1857 की क्रान्ति का तात्कालिक कारण बना। बहादुरशाह जफर -- बहादुरशाह जफर भारत के अन्तिम मुगल सम्राट थे। 10 मई 1857 को मेरठ से क्रान्ति का सूत्रपात होने पर अगले दिन क्रन्तिकारी बड़ी संख्या में दिल्ली पहुँचे। क्रांतिकारियों ने इन्हे अपना नेता चुना। बहादुरशाह जफर की वीरता के कारण 3 माह तक अंग्रेज दिल्ली पर कब्जा नही कर सके। अंग्रेजों की कूटनीति के तहत बहादुरशाह जफर को बन्दी बनाकर रंगून बर्मा भेज दिया गया। रंगून में ही 1862 में बहादुरशाह जफर की मौत हो गई। नाना साहब -- इनका वास्तविक नाम धोंडू पन्त था। ये मराठा पेशव...
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विद्रोह का आरम्भ और प्रमुख घटनाएँ -- 1857 के विद्रोह की पहली घटना की शुरुआत 29 मार्च 1857 को बंगाल में स्थित बैरकपुर नामक स्थान पर ब्रिटिश छावनी में मंगल पाण्डे द्वारा किया गया। इसके परिणामश्वरूप 8 अप्रैल 1857 को मंगल पाण्डे को फांसी दी गई , जिससे विद्रोह भड़क गया। 1857 के विद्रोह के आरम्भिक स्थान -- मेरठ -- 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत मेरठ से हुई थी। 9 मई 1857 को अश्वारोही सैनिक दल के 85 सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया था। इस पर अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें दण्डित किया। 10 मई 1857 को अन्य सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और जेल तोड़कर अपने साथियों को मुक्त करा लिया। इसके बाद मेरठ के सैनिकों ने दिल्ली का रुख किया। दिल्ली -- यहाँ पहुँचकर सैनिकों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर द्वितीय को अपना सम्राट घोषित कर दिया। प्रारम्भिक दौर में अंग्रेजों की स्थिति कमजोर होती चली गई। इसी बीच जनरल निकलसन के नेतृत्व में अंग्रेजों की बड़ी सेना पंजाब से दिल्ली आ गई। कई दिनों तक चले संघर्ष में अंग्रेजों की विजय हुई। कैप्टन हडसन ने सम्रा...
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1857 की क्रान्ति के सामाजिक व् धार्मिक कारण -- रीति - रिवाज पर प्रतिबन्ध -- तत्कालीन भारतीय समाज रूढ़िवादी परम्पराओं में जकड़ा हुआ था सती प्रथा , बाल विवाह प्रथा , विधवा विवाह प्रथा जैसी प्रथाएँ समाज में व्याप्त थीं। अंग्रेजों ने सुधारवादी नीति अपनाते हुए इन कुरीतियों पर प्रतिबन्ध लगा दिए। भारतीयों ने ऐसे अपनी परम्पराओं पर प्रहार माना और वह अंग्रेजों के प्रति असन्तोष रखने लगे। पश्चात्य शिक्षा का प्रसार -- लॉर्ड विलियम बैन्टिक के कार्यकाल में पाश्चात्य शिक्षा पर जोर दिया गया , साथ ही शिक्षा का माध्यम भी अंग्ग्रेजी किया गया। ईसाइयों ने बड़े पैमाने पर शिक्षण संस्थाएँ खोलीं , जिनमे भारतियों को निःशुल्क शिक्षा देने की बात कही गई। इससे भारतीयों में यह भावना उतपन्न हो गई कि अंग्रेजों के कारण उनकी संस्कृति समाप्त हो जाएगी और वह अंग्रेजों से ईर्ष्या करने लगे। कानून - निर्माण प्रक्रिया में भारतीयों की अनुपस्थिति -- ब्रिटिश अधिकारी भारतीय रीति - रिवाज से परिचित नहीं थे। इसके वावजूद वे भारतीयों के लिए कानून - बनाते थे। कानून - निर्माण काउन्सिल में भारतीयों भी को शामिल नहीं क...
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1857 की क्रान्ति के आर्थिक कारण -- भारतीय उद्योगों पर संकट -- औद्योगिक क्रान्ति के कारण इग्लैण्ड में आधुनिक कारखाने खोले गए थे। इन उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति भारत से सस्ते दामों पर की जाती थी। माल तैयार कराकर बाद में इसे ऊँचे दामों पर भारत के बाजारों में ही बेच दिया जाता था। इग्लैण्ड में बनी वस्तुएँ भारतीय वस्तुओं की तुलना में आकर्षक व् सस्ती होती थीं। ऐसे में भारत में बनी वस्तुओं की माँग घट गई और भारतीय उद्योग बन्द होने की कगार पर आ गए। भूमि पर अनुचित दबाव -- 19 वीं शताब्दी के मध्य में भारतीय उद्योग - धन्धों का पतन शुरू हो गया। लाखों की संख्या में मजदूर बेरोजगार हो गए। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि कार्य करके अपनी आजीविका को चलाने के उद्देश्य से वे गाँव जाने लगे। भूमि का विभाजन छोटे - छोटे अलाभकारी जोतों में होता गया। इसका परिणाम यह हुआ की भूमि पर दबाव बढ़ने लगा , उत्पादन कम होने लगा तथा लोगों को भुखमरी एवं आर्थिक दुर्दशा का सामना करना पड़ा। भारत में अकाल पड़ने लगा। 1857 से पहले भारत में कम - कम सात अकाल पड़े , जिसमे 15 लाख लोग काल के गाल में समा गए। इससे भारतीयों में अंग्रेजी शा...
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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि -- 1757 के प्लासी के युद्ध और 1764 के बक्सर के युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई। साम्राज्य स्थापित होने के बाद से ही ब्रिटिश अधिकारियों ने दमनकारी और अत्याचारी नीतियाँ शुरू कर दी। भारतीय जनमानस ब्रिटिशों की इस शोषणकारी नीतियों से त्रस्त हो चूका था , जिसका परिणाम 1857 के विद्रोह के रूप में सामने आया। भारतीयों की ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ स्वतंत्रता के लिए यह पहली लड़ाई थी , जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। अंग्रेजों ने इसे स्वतंत्र्रता संग्राम के स्थान पर सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है। 1857 की इस क्रान्ति का परिणाम यह हुआ की भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया और भारत शासन व्यवस्था ब्रिटिश क्राउन के हाथों में चली गई। यह वर्ष इतिहास का एक युग - प्रवर्तक वर्ष था। 1857 की क्रान्ति के कारण -- अंग्रेजों की राजनितिक , धार्मिक , सैनिक तथा आर्थिक नीतियों के कारण ही 1857 की क्रान्ति हुई। राजनीतिक कारण -- साम्राज्य्वादी नीति -- अंग्रेज भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आए थे , लेकिन यहाँ उन्हो...
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फ्रांन्सीसीयों की पराजय के कारण -- यूरोप में फ्रांसीसी साम्राज्यवाद की नीति -- फ्रांसीसी सरकार अत्यधिक महत्वाकांक्षा के तहत अपनी प्राकृतिक सीमा का विस्तार इटली , बेल्जियम और जर्मनी तक करना चाहती थी। भारत को लेकर फ्रांन्सीसी सरकार गम्भीर नहीं थी। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होता चला गया। कम्पनियों की राजनीतिक स्थिति -- ब्रिटिश कम्पनी एक निजी कम्पनी थी। किसी भी मसले पर निर्णय लेने के लिए निजी कम्पनी थी। किसी भी मसले पर निर्णय लेने के लिए ब्रिटिश कम्पनी स्वतंत्र थी। इसके विपरीत फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। आर्थिक एवं सैन्य सहायता के लिए फ्रांसीसी कम्पनी पूरी तरह से अपनी सरकार पर निर्भर थी। इस कारण फ्रांसीसी कम्पनी को अधिक सहायता नहीं मिल सकी। फ्रांसीसी कम्पनी की दुर्बल आर्थिक स्थिति -- उस समय बंगाल आर्थिक रूप से सम्पन्न क्षेत्र था। अंग्रेजों ने बंगाल पर अधिकार कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर लिया था। इसके विपरीत फ्रांसीसीयों को पाण्डिचेरी से कभी उतना लाभ नहीं मिल पाया। आर्थिक रूप से सम्पन्न होने का अंग्रेजों को युद...
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फ्रांसीसी शक्ति उत्थान और पतन -- 1664 में फ्रांसीसी मंत्री कालबर्ट के नेतृत्व में फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। भारत में फ्रांसीसियों ने सर्वपर्थम 1668 में सूरत तथा 1668 में मछलीपट्टम में अपनी व्यापारिक कोठियाँ बनाई। इसके बाद मध्य बंगाल के चन्द्र नगर में भी व्यापारिक स्थापित करने में फ्रांसीसी सफल रहे। 1739 तक मालाबार तट पर स्थित माही और कोरोमण्डल तट पर स्थित करिकाल या कराईकल भी फ्रांसीसियों के कब्जे में आ गए। 1742 के बाद कम्पनी उद्देश्य व्यापारिक लाभ कमाने के साथ ही राजनीतिक लाभ कमाना हो गया। उस समय ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी भारत में अपना साम्राज्य विस्तार कर रही थी। अतः ऐसे में ब्रिटिश और फ्रांसीसियों में संघर्ष होना स्वाभाविक था। ब्रिटिश और फ्रांसीसीयों का यह संघर्ष 20 वर्ष तक चला। इस अवधि में कर्नाटक के तीन युद्धों के नाम से भी जाना जाता है , जिसमे से प्रथम दो युद्धों का सफल नेतृत्व फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने किया था। प्रथम कर्नाटक युद्ध -- 1744 - 48 में प्रथम कर्नाटक युद्ध अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य लड़ा गया , इस युद्ध का प्रमुख कारण फ्र...
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भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना -- 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में मुगल साम्राज्य की शक्ति क्षीण होनी शुरू हो गई थी। उस समय बंगाल आर्थिक रूप से सम्पन्न साम्राज्य था। मुगल साम्राज्य में अर्थव्यवस्था का लाभ उठाकर 1740 में बिहार के नबाब सूबेदार अलिवदों खाँ ने स्वयं को बिहार , बंगाल और उड़ीसा का स्वतंत्र नवाव घोषित कर दिया। अप्रैल 1756 में आलिवदी खाँ की मौत के बाद उसका दोहित्र सिराजुद्दोला गद्दी पर बैठा। उधर , अंग्रेज भी बंगाल में अपनी शक्ति बढ़ाने प्रयास कर रहे थे। अंग्रेजों और सिराजुद्दोला की शत्रुता परिणामश्वरूप प्लासी का युद्ध हुआ। इस युद्ध ने ही भारत में अंग्रेजी साम्राज्य स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। प्लासी का युद्ध -- 23 जून 1757 में अंग्रेजों को सबक सिखाने के उद्देश्य से सिराजुद्दोला की सेना ने 4 जून 1756 को कासिम बाजार और 16 जून 1756 को कोलकता की कोठी पर अधिकार कर लिया। 20 जून 1756 को फोर्ट विलियम और कलकत्ता भी नबाव के कब्जे में आ गया। कलकत्ता की जिम्मेदारी मणिकचंद्र के हाथों में सौंपकर नवाब सिराजुद्दोला अपनी राजधानी मुशिर्दाबाद ...
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भारत में ब्रिटिश शक्ति का उदय और विकास -- 31 दिसंबर 1600 को इग्लैण्ड के कुछ व्यापारियों ने पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की। इस कम्पनी का वास्तविक नाम द गवर्नर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेण्ट्स ऑफ लन्दन ट्रेडिंग इंटू द ईस्ट इण्डीज था। प्रारम्भ में इग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कम्पनी को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के लिए विशेषाधिकार प्रदान किया। इस विशेषाधिकार की अवधि 15 वर्ष थी। 1615 में इग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम ने सर टॉमस रॉ को अपने राजदूत के रूप में जहाँगीर के दरवार में भेजा हालाँकि सर टॉमस रो और जहाँगीर के बीच व्यापारिक समझौता नहीं हो सका , लेकिन टॉमस रो गुजरात के तत्कालीन सूबेदार खुर्रम शाहजहाँ से व्यापारिक कोठियाँ खोलने का फरमान प्राप्त करने ने सफल रहा। धीरे - धीरे सूरत अंग्रेजों का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बन गया। ब्रिटिश शक्ति का विकास -- भारत में 1611 से 1680 तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का तेजी से विस्तार हुआ। गोलकुण्डा के सन्तुलन की आज्ञा से 1611 में अंग्रेजों ने मछलीपटट्म में व्यापारिक कोठी स्थापित की। ...
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डच शक्ति उत्थान और पतन -- डचों का प्रमुख उद्देश्य दक्षिण - पूर्व एशिया के मसाला बाजार पर नियंत्रण स्थापित करना था। डच हॉलैण्ड नीदरलैण्ड के निवासी थे। भारत में 1602 में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई थी। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए डचों का पुर्तगालियों से संघर्ष हुआ। 1602 में बैंटम और 1605 में एम्बायोना डचों के कब्जे में आ गया। 1619 में डचों ने जकार्ता पर कब्जा कर वहाँ बटाविया नामक नगर बसाया तथा बाद में बटाविया को ही अपनी राजधानी बनाया। 1639 में गोवा , 1641 में मलक्का और 1658 में सीलोन भी डचों ने पुर्तगालियों से छीन लिया। डचों ने मछलीपटट्म 1605 , पुलिकट 1610 , और सूरत 1616 में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित की। इसके अतिरिक्त चीनसुरा , कासिम बाजार , कड़ा नगर पटना , बालासोर , नागपटटम , कोचीन आदि में भी डचों की कोठियाँ थीं। डच भारत से मसालों के अतरिक्त नील , कच्चा रेशम , शीशा , चावल और अफीम आदि का भी व्यापार करते थे। डच शक्ति के पतन के कारण -- डचों पतन के प्रमुख रूप से कई कारण थे , इनमे मुख्य रूप से अंग्रेजों की तुलना में डचों नौसेनिक - शक्ति का कमजोर होना , आर्थिक स...
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पुर्तगालियों के पतन के कारण -- धार्मिक नीति -- पुर्तगाली भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहते थे। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को बलपूर्वक ईसाई बनाया तथा उनके धार्मिक स्थलों को तुड़वाया इससे भारतीय पुर्तगालियों के विरोधी बन गए। अव्यवस्थित शासन -- पुर्तगालियों की शासन व्यवस्था अव्यवस्थित थी। उनकी न्याय - प्रणाली में कई दोष थे तथा दण्ड प्रक्रिया भी पक्षपातपूर्ण थी। इस कारण पुर्तगाली स्थानीय जनता का सहयोग प्राप्त करने में असमर्थ रहे। अयोग्य संसाधनों में कमी -- पुर्तगालियों के आर्थिक संसाधन सीमित थे , उन्होंने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए बड़ी मात्रा में धन खर्च किया। व्यापार क्षेत्र अधिक हो जाने के कारण व्यय राशि बढ़ गई। अतः वह अपने अधिकार क्षेत्र पर कुशल रूप में नियंत्रण नहीं कर सके। अंतर्जातीय विवाह -- पुर्तगालियों द्वारा भारत में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए स्थानीय जातियों से विवाह की नीति अपनाई गई। इस नीति के अनुसार , बहुत से पुर्तगाली युवकों का विवाह स्थानीय महिलाओं से किया गया। पुर्तगालियों की इस नीति से सामाजिक असन्तोष में वृद्ध...
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यूरोपीय शक्तियों का भारत में आगमन -- यूरोप का बाजारों में भारत में बने सूती कपड़ों और रेशम के अतिरिक्त मसालों की अधिक माँग थी। मसाला और कपड़ा बाजार पर कब्जा जमाने के उद्देश्य से यूरोपियन कम्पनियों का भारत में आगमन हुआ। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्वपर्थम पुर्तगालियों ने भारत का रुख किया। उनके बाद डच , ब्रिटिश और फ्रांसीसी कम्पनियाँ भी भारत आई। बाजार पर एकाधिकार स्थापित करने और अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से इन कम्पनियों में प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई , जिसके कारण कई युद्ध हुए। अन्त में ब्रिटिश कम्पनी भारतीय बाजार पर कब्जा जमाने में सफल रही। विभिन्न परिस्तितियों के कारण ब्रिटिश कम्पनी ने भारतीय राजनीति में भी दखल देना शुरू कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ की वः भारत में सत्ता स्थापित करने में सफल रही और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी व्यापार के साथ - साथ राजनीति का संचालन भी करने लगी। भारत में पुर्तगालियों का उत्थान और पतन -- 20 मई 1498 को वास्कोडिगामा के भारत आगमन से पुर्तगालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नए युग का शुभारम्भ हुआ। धीरे - धीरे पुर्तगालियों का भारत आन...
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द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम -- द्वितीय विश्वयुद्ध 6 वर्ष तक चलता रहा था। यह क्रूर और भयानक युद्ध था तथा अपनी व्यापकता व् प्रभाव में अत्यधिक विनाशकारी था। .विभिन्न क्षेत्रों में इसके परिणाम देखे जा सकते थे। भयंकर विनाश एवं नरसंहार -- द्वितीय विश्वयुद्ध में विश्व लगभग 70 देशों की थल , वायु एवं जल सेनाएँ शामिल थीं। इस युद्ध में लगभग 5 करोड़ से भी अधिक लोग मारे गए। करोड़ों लोग घायल व् बेघर हो गए थे। युद्ध में सर्वाधिक हानि जर्मनी एवं रूस को उठानी पड़ी। फ्रांस बेल्जियम , हालेण्ड आदि राष्ट्र्रों में असंख्य लोग भूख से तड़प - तड़प कर मर गए थे। आर्थिक संकट -- यूरोप के राष्ट्रों द्वारा अपने साधनों का प्रयोग वृहत पैमाने पर युद्ध में किया गया। युद्ध के पश्चात अनेक देशों में कीमतों में वृद्धि हो गई , जिससे चोरबाजारी तथा मुनाफाखोरी बढ़ी और बेरोजगारी पनपने लगी। जर्मनी का विभाजन -- द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के कारण मित्र राष्ट्रों के द्वारा उसे दो भागों में विभाजित कर दिया गया - पूर्वी जर्मनी एवं पश्चिमी जर्मनी। पूर्वी जर्मनी पर रूस ने अधिकार कर लिया , जबकि पश्चिमी जर्मनी पर अ...
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मित्र राष्ट्रों की विजय एवं द्वितीय विश्वयुद्ध का अन्त -- इटली पर जीत -- इटली की सेना द्वितीय विश्वयुद्ध में एक दुर्लभ सेना साबित हुई। .इटली की जनता में मुसोलिनी के विरुद्ध असन्तोष बढ़ने लगा। 28 अगस्त 1944 को मुसोलिनी को बन्दी बना लिया गया। इटली की तत्कालीन सरकार सन्धि को तैयार थी , जर्मन सेनाओं के आगमन के कारण मित्र राष्ट्रों को भीषण युद्ध करना पड़ा। अन्ततः 4 जून 1944 को रोम पर मित्र राष्ट्रों का कब्जा हो गया। इस प्रकार इटली से फासीवादी ताकतों का अंत हो गया। जर्मनी की पराजय -- मित्र राष्ट्रों ने इटली पर अधिकार करने के बाद जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों पर वमवर्षा शुरू कर दी। 25 अगस्त 1944 को मित्र राष्ट्रों ने फ्रांस को जर्मनी से मुक्त करवा लिया। इसके बाद मित्र राष्ट्रों ने बेल्जियम , ब्रुसेल्स तथा हालेण्ड पर आक्रमण कर दिया। अब जर्मनी को घेरने का प्रयास किया लेन लगा। उत्तर की ओर से इग्लैण्ड , मध्य में अमेरिका तथा दक्षिण में फ्रांसीसी सेनाओं ने तथा पूर्व की ओर से रूस ने घेर लिया। इस प्रकार जर्मनी चारों ओर से शत्रुओं से घिर गया। जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों एवं रूस के साम...
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द्वितीय विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएँ -- द्वितीय विश्वयुद्ध वर्ष 1939 से 1945 तक चला। युद्ध के परिप्रेष्य से यह समय बहुत अधिक होता है। इस कल के दौरान अनेक घटनाएँ घटित हुई। पोलैण्ड , फिनलैण्ड , नार्वे , डेनमार्क , हालेण्ड तथा बेल्जियम पर आक्रमण -- 1 सितंबर 1939 को पोलैण्ड पर हिटलर के आक्रमण द्वारा युद्ध का आरम्भ हुआ। परिणामश्वरूप 3 सितंबर को इग्लैण्ड व् फ्रांस ने जर्मनी से युद्ध की घोषणा की। 28 सितंबर को जर्मनी व् सोवियत रूस ने सन्धि कर पोलैण्ड का बँटवारा कर लिया। पूर्वी पोलैण्ड सोवियत संघ को मिला और पश्चिमी पोलैण्ड जर्मनी को। सोवियत संघ ने बाल्टिक राज्य एस्टोनिया , लातविया , लिथुआनिया को अधीनस्थ राज्य बना लिया और फिनलैण्ड पर आक्रमण कर मार्च 1940 में उसके महत्वपूर्ण सैनिक अडडे कब्जे में ले लिए। 9 अप्रैल 1940 को हिटलर ने डेनमार्क और नार्वे पर तथा मई 1940 में लक्जेमबर्ग , हालेण्ड और बेल्जियम पर कब्जा कर लिया। जर्मनी को फ्रांस पर विजय -- 27 मई को बेल्जियम के आत्मसमर्पण के पश्चात हिटलर ने 3 जून 1940 को फ्रांस पर भी आक्रमण कर दिया। हिटलर ने फ्रांस के समस्त प्रयासों को असफल करते हुए फ...
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द्वितीय विश्वयुद्ध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -- प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद पेरिस शान्ति सम्मेलन 1919 में आयोजित किया गया , राष्ट्र संघ की स्थापना की गई और शान्ति व् सुरक्षा की बात की जाने लगी , किन्तु इस युद्ध के महज दो दशकों के पश्चात ही विश्व कको दूसरे महायुद्ध का सामना करना पड़ा , जो अपने स्वरूप , विस्तार एवं प्रभाव में पहले युद्ध की अपेक्षा बहुत विस्तृत था। द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत जर्मनी द्वारा 1 सितंबर 1939 पोलैण्ड पर आक्रमण के साथ हुई। इस युद्ध के प्रारम्भ से ही यूरोप दो विरोधी गुटों में विभाजित हो गया था एक दल को धुरी राष्ट्र तथा दूसरे दल को मित्र राष्ट्र कहा जाता था धुरी राष्ट्र में इटली , जर्मनी , जापान इत्यादि देश थे तो मित्र राष्ट्र में इग्लैण्ड , फ्रांस आदि शक्तिशाली देश थे। इस युद्ध में मित्र राष्ट्र देशों ने पोलैण्ड का साथ दिया। 14 अगस्त 1945 जापान के आत्मसमर्पण के साथ इस युद्ध का अन्त हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण -- प्रथम विश्ह्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भी पराजित पक्ष तथा विजेता पक्ष के बीच मतभेद समाप्त नहीं हुए थे। पराजित पक्ष...
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राष्ट्र संघ की असफलता के कारण -- मजबूत राष्ट्रों की उदासीनता -- राष्ट्र्र संघ से सदैव मजबूत तथा प्रभावशाली देशों ने दूरी बनाई। इसका परिणाम यह हुआ कि संघ को इन देशों का पूर्ण सहयोग प्राप्त न हो सका। अमेरिका की प्रेरणा से ही यह संगठन अस्तित्व में आया था , किन्तु अमेरिका ही इसका सदस्य नहीं था। क्योकि अमेरिका की सीनेट ने वर्साय की सन्धि को मान्यता नहीं दी थी। इसी तरह जर्मनी और रूस भी काफी समय तक इसके सदस्य नहीं बने थे। राष्ट्र संघ के आदेशों का उलंघन -- राष्ट्र संघ के संविधान के अनुसार जिन आदेशों को पारित किया गया था , उसे उसके ही सदस्य देशों के द्वारा नजरन्दाज किया गया। संघ के अपने सदस्य - राष्ट्रों ने इसके उद्देश्यों के अनुसार काम करने के बजाय अपने स्वार्थों को ध्यान में रखकर कार्य किया , जिससे राष्ट्र संघ को क्षति पहुँची। युद्ध को रोकने की शक्ति का अभाव -- राष्ट्र संघ के पास अनेक आदेशों का पालन कराने के लिए कोई साधन या दण्डात्मक तथा निषेधात्मक अधिकार नहीं था। जब शक्तिशाली देश द्वारा किसी अन्य देश पर आक्रमण किया जाता था , तो राष्ट्र संघ केवल निन्दा प्रस्ताव पारित करता था और मूक ...
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राष्ट्र् संघ - लीग ऑफ नेशन्स -- राष्ट्र संघ की स्थापना 10 जनवरी 1920 को विश्व में शान्ति तथा सुरक्षा कायम रखने तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में अभिवृद्धि करने के मुख्य उद्देश्य के साथ की गई थी। अमेरिका के राष्ट्र्रपति वुडरो विल्सन ने पेरिस शान्ति सम्मेलन में अपने 14 सूत्री सिद्धांतों में इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना का सुझाव दिया था। इस सुझाव के आधार पर जेनेवा में राष्ट्र संघ नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का गठन किया गया। विल्सन के 14 सूत्री सिद्धांत -- 1 8 जनवरी 1918 को विल्सन ने 14 सूत्र रखे , जिनके आधार पर न्यायपूर्ण शान्ति स्थापित की जा सकती थी। 2 शान्ति संधियाँ प्रकट रूप से की जाएँ और उसके पश्चात किसी प्रकार के गुप्त कूटनीतिक समझौते न किए जाएँ। 3 शान्ति एवं युद्धकाल में समुद्रों की स्वतंत्रता सुरक्षित रहे और वे सभी राष्ट्रों के लिये खुले रहें। 4 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के संबन्ध में सभी आर्थिक प्रतिबन्ध समाप्त कर दिए जाएँ और सभी राष्ट्र को व्यापार करने हेतु समान अवसर प्राप्त हों। 5 सभी राष्ट्र केवल उतने ...
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पेरिस शान्ति सम्मेलन -- प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों ब्रिटेन , फ्रांस , अमेरिका आदि ने धुरी राष्ट्रों और उसके सहयोगी राष्ट्र ऑस्ट्रिया , हंगरी , बुल्गारिया और तुर्की को पराजित किया था। विजयी राष्ट्रों ने युद्धोत्तर काल की समस्याओ को सुलझाने के लिए पेरिस में 1919 में एक शान्ति सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें जर्मनी , ऑस्ट्रिया , बुल्गारिया , तुर्की आदि पराजित राष्ट्रों को छोड़कर विश्व के 27 राष्ट्रों के 70 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका , क्लीमेंसो फ्रांस लॉयड जार्ज , ओरलेंडो तथा सोओनजी जापान शामिल था साथ ही 11 देशों के प्रधानमंत्री तथा 12 देशों के विदेश मंत्री भी इस शान्ति सम्मेलन का हिस्सा थे। 18 जनवरी 1919 को सम्मेलन की बैठक प्रारम्भ हुई। फ्रांस , इग्लैण्ड तथा अमेरिका ही इस सम्मेलन के मुख्य कर्ता - धर्ता थे। सम्मेलन के दौरान वुडरो विल्सन ने 14 सूत्री सिद्धांतो का प्रतिपादन किया , किन्तु फ्रांस और इग्लैण्ड की जिद के कारण इन सिद्धांतों की अवहेलना करके पराजित राष्ट्रों को अपमानजनक सन्धियों को स्वीकार करने पर बाध्य किया गया। पर...
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प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के कारण -- जब युद्ध प्रारम्भ हुआ था तब जर्मनी की स्थिति अत्यंत सुदृढ़ थी। जर्मनी के पास विशाल सुसंगठित शक्तीशाली सेना , अस्त्र - शस्त्र खाद्य सामिग्री आदि पर्याप्त मात्रा में थी। उसके सैनिक अनुशासित एवं प्रशिक्षित थे। फिर भी जर्मनी को प्रथम विश्वयुद्ध में हार का मुँह देखना पड़ा। युद्ध की अधिक समयावधि -- यह युद्ध 4 वर्ष 3 माह और 11 दिन तक चला। युद्ध के परिप्रेक्ष में यह काफी लम्बा समय था। जर्मनी को इस बात का जरा भी अनुमान नहीं था कि युद्ध इतना लम्बा चलेगा। जर्मनी का अनुमान था कि वह एक दो माह में ही मित्र राष्ट्रों को पराजित कर देगा। इस प्रकार अधिक समय तक युद्ध का चलना जर्मनी की हार का एक प्रमुख कारण बना। मित्र राष्ट्रों की सर्वश्रेष्ठता -- मित्र राष्ट्रों के पास जर्मनी की अपेक्षा अधिक जन धन था , उन्होंने इसका प्रयोग कर अपनी श्रेष्ठता सावित की। इग्लेण्ड मित्र राष्ट्रों का एक अहम देश था। इसकी सेना शक्ति का लोहा पूरा विश्व मानता था। इग्लेण्ड के जंगी जहाजों के सामने जर्मनी के जंगी जहाज टिक नहीं पाए तथा जर्मनी की पराजय हो गई। जर्मन सेनापतिय...
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प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम -- प्रथम विश्वयुद्ध 20 वीं शताब्दी की अति भयंकर तथा दूरगामी परिणामों वाली घटना थी। यह इससे पहले हुए सभी युद्धों से कई गुना अधिक विनाशकारी था। इस युद्ध में करोड़ों की संख्या में सैनिक मारे गए , घायल हुए तथा जन - क्षति के अतिरिक्त अपार धन की हानि हुई। जन - धन का भारी विनाश -- इस विश्वयुद्ध में जन और धन का अत्यधिक विनाश हुआ। इस युद्ध में मित्र राष्ट्रों के लगभग 50 लाख सैनिक मारे गए तथा जर्मनी और उसके मित्र देशों के लगभग 80 लाख सैनिक मारे गए तथा लगभग 2 करोड़ से अधिक घायल हो गए। इस जनहानि के साथ - साथ धन व् सम्पत्ती की भी अपार क्षति हुई। दोनों पक्षों की ओर से इस युद्ध में लगभग 1 खरब 67 अरब डाँलर व्यय हुए। लगभग 12 अरब डॉलर की सम्पत्ति इस युद्ध में नष्ट हो गई। आधुनिक हथियारों के निर्माण की होड़ -- यह युद्ध यूरोप और एशिया के महाद्वीपों में लड़ा गया था। विश्व की लगभग 87% जनता ने अप्रत्यक्ष रूप से इस युद्ध में भाग लिया था। इस युद्ध में विशाल टेंकों , विषैली गैसों , भारी मशीनगनों , हवाई जहाजों तथा पनडुब्बियों आदि का भारी मात्रा में प्रयोग किया गया।...